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( ५० ) अथ संवरानुप्रेक्षा लिख्यते। सम्मत्तं देसवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवरणामा जोगा भावो तहच्चेव ॥ ९५ ॥
भाषार्थ-सम्यक्त्व देशवत महाव्रत तथा कपायनिका जीतना तथा योगनिका अभाव एते संवरके नाम हैं. भावार्थपूर्व आत्रव, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, योगरूप पंच प्रकार कया था, तिनका अनुक्रमतें रोकना सो ही संवर है. सो कैसे ? मिथ्शत्वका अभाव तौ चतुर्यगुणस्थानवि भया तहां अविरतका संवर भया. अविरतका अभाव एक देश तो देशविरतिविषै भया, पर सर्वदेश प्रमत्तगुणस्थानविर्षे भया तहां अविरतका संवर भया. बहुरि अप्रमत्त गुणस्थानविषे प्रमादका अभाव भया तहां ताका संवर भया. अयोगिजिनविष योगनिका प्रभाव भया, तहां तिनिका संवर भया । ऐसें संवरका क्रम है।
श्रागें इसीको विशेषकर कहैं हैं,गुती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह परीसहजओ वि। उक्किट्ठे चारित्तं संवरहेदू विसेसेण ॥९६ ॥ ____ भाषार्थ-कायमनोवचनगुप्ति, ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपणा प्रतिष्ठापना एवं पंचसमिति, उत्सम क्षमादि द. शलक्षण धर्म, अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा, सुधा प्रादि बाईस परीषहका जीतना, सामायिक श्रादि उत्कृष्ट पंचाकार चारित्र एते विशेषकर संवरके कारण हैं।