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(२३४) सो दयाप्रधान ही है. बहुरि ऐसे भी जानना जो पूजा प्र. तिष्ठा चैत्यालयका निर्मापण संघयात्रा तथा वसतिकाका निर्मापण गृहस्थनिके कार्य हैं ते भी मुनि आप न करै, न करावे, न अनुमोदना करै. यह धर्म गृहस्थनिका है सो जैसे इनिका सूत्रमें विधान लिख्या है तेसै गृहस्थ करै, गृहस्थ मुनिकू इनिका प्रश्न करै तौ कहै जिन सिद्धांतमें गृहस्यका धर्म पूजा प्रतिष्ठा आदि लिख्या है तैसें करो. ऐसे कहनेमें हिंसाका दोष तो गृहस्यके ही है. इसमें तिस श्रद्धान भक्ति धर्मकी प्रधानता भई तिस संबंधी पुण्य भया तिसके सीरी मुनि भी हैं, हिंसा गृहस्थकी है. ताके सीरी नाही. बहुरि गृहस्थ भी हिंसा करने का अभिप्राय करै तौ अशुभ ही है, पूजा प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करे है. कार्यमें हिंसा होय सो गृ. हस्यके कैसे टलै ? सिद्धांतमें ऐसा भी कहया है जो अला अपराध लगै बहुत पुण्य निपजै ऐसा कार्य गृहस्थकू योग्य है. गृहस्य जिसमें नफा जाणे सो कार्य करै. थोडाद्रव्य दीये बहत द्रव्य भावै सो कार्य कर. किंतु मुनिनिकै ऐसा कार्य नाही होय है. तिनिकै सर्वया यत्न ही है ऐसाजानना ४०५ देवगुरूण णिम्मित्वं हिंसारंभो वि होदि जदि धम्मो। हिंसारहिओ धम्मो इदि जिणवयणं हवे अलियं ॥
__भाषार्थ-जो देव गुरुके निमित्त हिंसाका आरम्भ भी यतिका धर्म होय तौ जिन भगवानके ऐसे वचन हैं जो धर्म हिंसारहित है सो ऐसा वचन अलीक ( झूठा) ठहरे. भा.