SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की आगे जीवकू देहतै भिन्न जानने• लक्षण दिखावे हैंदेहमिलिदो वि पिच्छदि देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सदं । देहमिलिदो वि भुंजदि देहमिलिदो वि गच्छेई ॥ . भाषार्थ-जीव है सो देहसू मिल्या ही नेत्रनिकरि पदार्थनिकू देखें है. बहुरि देहसू मिल्या ही काननिकरि श. ब्दनिकों सुण है. बहुरि देहसू मिल्या ही मुखते खाय है, जीभौं स्वाद ले है बहुरि देहत मिल्या ही पगनिकरी ग. मन करै है. भावार्थ-देहमें जीव न होय तो जडरूप केवल देहहीकै देखना स्वाद लेना सुनना गमन करना ए क्रिया न होय. तातें जानिये है देहमें न्यारा जीव है. सोही ये क्रिया कर है ॥ १८६ ॥ . आगे ऐसे जीवकू मिले ही मानता लोक भेद है जान है, राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी हं चेव दुव्वलो बलिओ । इदि एयत्चाविठ्ठो दोह्न भेयं ण वुझेदि ॥ १८७ ॥ ____ भाषार्थ-देहकै अर जीवकै एकपणाकी मानिकरि Hहित जो लोक है सो ऎसैं मान है जो मैं राजा हूं मैं चाकर हूं मैं श्रेष्ठी हूं मैं दुर्बल हूं मैं दरिद्र हूं निवल हू बलवान हूं ऐसैं मानता संता देह जीव दोऊनिकै भेद नाहीं जान है१८७ भागें जीवकै कर्त्तापणा प्रादिकं च्यारि गाथानिकरि
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy