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________________ (२८८) ल्पित न कही हैं पूर्व अनुसार कही हैं सो इनिकौं जो भव्य जीव पटै अथवा सुणै अर इनिकी भावना करैवारम्बार चिं. तवन करै सो उत्तम सुख जो बाधारहित अविनाशी स्वात्मीक सुख, ताकौं पावै. यह संभाग्नारूप कर्तव्य अर्थका उपदेश जानना, भव्य जीव है सो पढौ सुणोबारम्बार इनिका चितवन रूप भावना करौ॥ ४८८॥ ___ आगें अन्त्यमंगल करै हैं,-- तिहुयणपहाणस्वामि कुमारकाले वितविय तवयरणं। वसुपुज्जसुयं मल्लिं चरिमतियं संथुवे णिचं ॥४८९॥ __ भाषार्थ-तीन भुवनके प्रधानस्वामी तीर्थंकर देव जिनने कुमार कालविष ही तपश्चरण धारण किया, ऐसे वसुपूज्य राजाके पुत्र वासुपूज्यजिन, अर मल्लिजिन अर चरम कहिये अंतके तीन नेमिनाथ जिन, पार्श्वनाथ जिन, वर्द्धमान जिन ए पांच जिन, तिनिकौं मैं नित्य ही स्तवू हूं तिनिके गुणानुवाद करू हूं बंदू हूं. भावार्थ-ऐसे कुमारश्रमण जे पांच वीर्थकर तिनिकौं स्तवन नमस्काररूप अंतमंगल कीग है. इहां ऐसा सूचै है कि-श्राप कुमार अवस्थामें मुनि भये हैं तातें कुमार तीर्थकरनितें विशेष प्रीति उपजी है तात तिनिके नामरूप अंतमंगल कीया है॥ ४८९॥ - ऐसे श्रीस्वामिकार्तिकेय मुनि यह अनुप्रेक्षा नामा ग्रन्यः समाप्त कीया। भागें इस वचनिकाके होनेका संबन्ध लिखिये हैं
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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