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________________ ( ५३ ) भाषार्थ - जो ज्ञानी होय ताकै बारह प्रकार तपकरि कनिकी निर्जरा होय है कैसे ज्ञानीकै होय ? जो निदान कहिये इन्द्रियविषयनिकी इच्छा ताकरि रहित होय. बहुरि अहंकार अभिमानकर रहित होय, बहुरि काहतें निर्जरा होय ? वैराग्यभावना जो संसार देहभोगर्ते विरक्त परिणाम तातें होय. भावार्थ - तपकरि निर्जरा होय सो ज्ञानसहित तप करे तार्के होय. अज्ञानसहित विपर्यय तप करें तामें हिसादिक होय, ऐसे तपतैं उलटा कर्मका बंध होय है. बहुरि तपकरि मदकरै परकूं न्यून गिजै, कोई पूजादिक न करै, वासू क्रोध करें ऐसे तपतैं बंध ही होय. गर्वरहित तपतैं निर्जरा होय. बहुरि तपकरि या लोक परलोकविषै ख्याति लाभ पूजा इन्द्रियनिके विषय भोग चाहै, ताकै बंध ही होय. निदानरहित तपतैं निर्जरा होय. बहुरि संसार देहभोगविषै आसक्त होइ तप करै, ताका आशय शुद्ध होय नाही, ताकै निजरा न होय. वैराग्यभावनाही तें निर्जरा होय है ऐसा जानना । मार्गे निर्जरा कहा कहिये सो कहै हैं, - सव्वास कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ । तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिजरा जाण ॥ १०३ ॥ भाषार्थ - समस्त जे ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म तिनकी शक्ति कहिये फल देनेकी सामर्थ्य, ताका विपाक कहिये प-कना, उदय होना, वाकूं अनुभाग कहिये, सो उदय आ य अनंतर ही ताका सटन कहिये झडनाक्षरना होय ताकूं
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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