Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 286
________________ (२७३ ) आगे प्राध्यानकूं कहे हैं, - दुक्खयरविसयजोए केण इमं चयदि इदि विचितंतो । चेट्ठदि जो विक्खित्तो अहं ज्झाणं हवे तस्स ॥ ४७१ ॥ मण हर विसय विजोगे कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सोचिय अहं हवे ज्झाणं ॥ ४७२ ॥ भाषार्थ - जो पुरुष दुःखकारी विषयका संयोग होते ऐसा चितवन करें जो यह मेरे कैसे दूर होय ? बहुरि तिमके संयोग तैं विक्षिप्तचित्त भया संता चेष्टा करै, रुदनादिक करै तिस के प्रतिध्यान होय है. बहुरि जो मनोहर प्यारी विषय सामग्रीका वियोग होतें ऐसा चितवन करे जो ताहि मैं कैसें पाऊं, ताके वियोग संताप रूप दुःखस्वरूप प्रवर्त्ते, सो भी श्रार्त्तध्यान है. भावार्थ- आर्त्तध्यान सामान्य तौ दुःख क्लेश रूप परिणाम है, तिस दुःखमें लीन रहे अन्य किछू चेत र नाहीं ताकूं दोष प्रकारकरि कथा. प्रथम तौ दुःखकारी सामग्रीका संयोग होय ताकूं दुरि करनेका ध्यान रहै. दूसरा इह सुखकारी सामग्रीका वियोग होय ताके मिल्लावनेका चितवन ध्यान रहै सो आर्चध्यान है. अन्य ग्रंथनिमें च्यारि भेद कहे हैं - इष्टवियोगका चितवन, ध्यनिष्टसंयोगका चितवन, पीडाका चितवन, निदानबंधका चितवन, सो इहां दोय कहे तिनिमें ही अंतर्भाव भये. अनिष्टसंयोग के दूरि करने में तौ पीडा चितवन प्राय गया, अर इष्टके मिलावने की वांछा L

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