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स्वरूपविष मनकू रोककरि आनंदसहित चितवन होय सो उत्तम धर्मध्यान है. भावार्थ-जो समस्त अन्य विकल्पनितूं रहित आत्मस्वरूपविषै मनकू थांभनेते आनन्दरूप चिन्तवन रहै सो उत्तम धर्मध्यान है. इहां संस्कृत टीकाकार धर्मध्यानका अन्य ग्रंथनिके अनुसार विशेष कथन किया है. ताकौं संक्षेपकरि लिखिये है-तहां धर्मध्यानके च्यारि भेद कहे हैं. आझाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय, ऐसें. तहां जीवादिक छह द्रव्य पंचास्तिकाय सप्ततत्व नव पदार्थनिका विशेष स्वरूप विशिष्ट गुरुके अभाव तथा अ. पनी मंदबुद्धिके वशतै प्रमाण नय निक्षेपनि साधिये ऐसा जान्या न जाय तब ऐसा श्रद्धान करै जो सर्वज्ञ वीतराग देबने कह्या है सो हमारै प्रमाण है ऐसे आज्ञा मानि ताके अनुसार पदार्थनिमैं उपयोग यांम* सोपाज्ञाविचय धर्मध्यान है १. बहुरि अपाय नाम नाशका है सो जैसे कर्मनिका नाश होय तैसैं चितवै तथा मिथ्यात्वभाव धर्मविषै विघ्नके कारण हैं तिनिका चितवन राखै-अपने न होनेका चितवन करै परके मेटनेका चितवन करै सो अपायविचय है २. बहुरि विपाक नाम कर्मके उदयका है सो जैसा कर्म उदय होय ताका तैसा स्वरूपका चितवन करै सो विपाकविचय है ३. बहुरि लोकका स्वरूप चितवना सो संस्थान विचय है ४. बहुरि दशप्रकार भी कया है-अपायविचय उपायविचय जीवविचय प्राशाविचय विपाकविचय अजीवविषय