Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 296
________________ (२८३) परि यंभे सो तो ध्यान भया पलटया तब दूसरे परि थंभ्या सो भी ध्यान भया ऐसे ध्यानके संतानकं भी ध्यान कहिये। इहां संतानकी जाति एक है ताकी अपेक्षा लेणी. बहुरि उ. पयोग पलटै सो इसके ध्याताकै पलटावनेकी इच्छा नाहीं है जो इच्छा होय तौ रागसहित यह भी धर्म ध्यान ही ठहरै. इहां रागका अव्यक्त भया सो केवलज्ञानगम्य है ध्याताके ज्ञान गम्य नाही. भाप शुद्ध उपयोगरूप हवा पलटनेका भी ज्ञाता ही है. पलटना क्षयोपशम ज्ञानका स्वभाव है सो यह उपयोग बहुत काल एकाग्र रहै नाही याकू शुक्ल ऐसा नाम रागके अव्यक्त होनेही कह्या है ॥ ४८२ ॥ आगें दूजा भेद कहैं हैं,णिस्सेसमोहविलये खीणकसाओ य अंतिमे काले । ससरूवम्मि णिलीणो सुक्कं ज्झायेदि एयत्तं ४८३ ___ भाषार्थ-आत्मा समस्त मोहकर्मका नाश भये क्षीण कषाय गुणस्थानका अंतके कालविषे अपने स्वरूपविषे लीन हूवा संता एकत्ववितर्कवीचारनामा दूसरा शुक्लध्यानकौं ध्याव है. भावार्थ-पहले पायेमें उपयोग पलटै था सो पलट. ता रहगया एक द्रव्य तथा पर्यायपरि तथा एक व्यंजनपरि तथा एक योगपरि थंभि गया, अपने स्वरूपमें लीन है ही, अब घातिकर्मका नाशकरि उपयोग पलटैगा सो सर्वका प्रस्वक्ष ज्ञाता होय लोकालोककौं जानना यह ही पलटना रहा है ॥ ४८३॥

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