Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 295
________________ ( २८२ ) मिथ्यात्व तीन, कषाय अनंतानुबंधी च्यारि प्रकृतिनिका उपशम तथा क्षय करि सम्यग्दृष्टी होय. पीछें अप्रमत्त गुणस्थानविषै सातिशय विशुद्धतासहित होय श्रेणीका प्रारम्भ करै, तब पूर्वकरण गुणस्थान होय शुक्लध्यानका पहला पाया प्रव, तहां जो मोहकी प्रकृतिनिकूं उपशमावने का प्रारंभ करे तो पूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इनि वीनू गुणस्थानविषै समय समय अनन्तगुणी विशुद्धताकरि वद्धर्मान होता संता मोहनीय कर्मकी इकईस प्रकृतिनिकूं उपशमकरि उपशांत कषाय गुणस्थानकं प्राप्त होय है. अर कै मोहकी प्रकृतिनिकुं क्षपावनेका प्रारंभ करै तौ तीनू गुणस्थानविषै इकईस मोहकी प्रकृतिनिका सत्तामेंसूं नाशकरि क्षीणकषाय बारहवां गुरुस्थानकं प्राप्त होय है. ऐसें शुक्लध्यानका पहला पाया पृथक्त्ववितर्कवीचार नामा प्रवर्तें है. तहां पृथक कहिये न्यारा न्यारा वितर्क कहिये श्रुतज्ञानके अक्षर अर अर्थ अर वीचार कहिये अर्थका व्यंजन कहिये अक्षररूप वस्तुका नामका अर मन वचन कायके योग इनिका पलटना सो इस पहले शुक्लध्यान में होय है. तहां अर्थ तौ द्रव्य गुण पर्याय है सो पलटै, द्रव्यसूं द्रव्यान्तर गुणसूं गुणान्तर पर्याय पर्यायान्तर, बहुरि तैसें ही बणं वर्णान्तर बहुरि तैसें ही योगं योगांतर है । इहां कोई पूछे - ध्यान तौ एकाग्रचितानिरोध है पलटने - कूं ध्यान कैसे कहिये ? ताका समाधान - जो जेतीवार एक

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