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जं ज्झायदि अजोगिजिणो णिक्किरियं तं चउत्थं च
भाषार्थ - केवली भगवान् योगनिकी प्रवृत्तिका अभावकरि जब अयोगी जिन होय हैं तब अघातियाकी प्रकृति सत्ता में पिच्यासी रहीं हैं तिनिका क्षय करनेके अर्थ जो घ्यावे है सो चौथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामा शुक्लध्यान होय है. भावार्थ - चौदहवां गुणस्थान अयोगीजिन है तहाँ स्थिति पंचलघु अक्षरप्रमाण है. तहां योगनिकी प्रवृत्तिका अभाव है सो सत्ता में अघातिकर्मकी पिच्यासी प्रकृति हैं ति निके नाशका कारण यह योगनिका रुकना है तातें इसकौं ध्यान कहया है. सो तेरहवां गुणस्थानकी ष्यों इहां भी ध्यानका उपचार जानना किछू इच्छापूर्वक उपयोगका यांभनेरूप ध्यान है नाहीं, इहां कर्म प्रकृतिनिके नाम तथा और भी विशेष कथन अन्यग्रंथनिके अनुसार हैं सो संस्कृतarai जानना, ऐसें ध्यान तपका स्वरूप कला ॥ ४८५ ॥ ठीका प्रागें तपके कथन कौं संकोच हैं, -
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एसो वारसमेओ उग्गतवो जो चरेदि उवजुतो । सो खविय कम्मपुंजं मुत्तिसुहं उत्तमं लहई ||४८६॥
भाषार्थ - यह बारह प्रकारका तप कह्या जो मुनि इनिविषै उपयाग लगाय उग्र तीव्र तपकौं आचरण करें है सो मुनि मुक्ति के सुखकों पावै है. कैसा है मुतिसुख खेपे हैं कर्मके पुंज जानें बहुरि अक्षय है. अविनाशी है. भावार्थ - तप