Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 294
________________ ( २८१ ) रहित परमात्मस्वरूपविषै लयकूं प्राप्त होय सो रूपातीत ध्यान है, ऐसा ध्यान सातवें गुणस्थान होय तब श्रेणीक पाढे यह ध्यान व्यक्तरागसहित चतुर्थ गुणस्थानतें लगाय सातवां गुणस्थान ताई अनेक भेदरूप प्रवर्त्त है ॥ ४८० ॥ मागें शुक्लध्यानकौं पांच गायाकरि कहें हैं, - जत्थ गुणा सुविसुद्धा उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं । सा वि जत्थ सुक्का तं सुकं भण्णदे ज्झाणं ॥ ४८१ ॥ भाषार्थ - जहां भले प्रकार विशुद्ध व्यक्त कषायनिके अमुभवरहित उज्वल गुरा कहिये ज्ञानोपयोग आदि होय, बहुरि कर्मनिका जहां उपशम तथा क्षय होय, बहुरि जहां लेश्या भी शुक्ल ही होय, तिसकौं शुक्लध्यान कहिये है. भावार्थ - यह सामान्य शुक्लध्यानका स्वरूप का विशेष आगे कहै हैं . बहुरि कर्म के उपशमनका भर क्षपणका विधान अन्य ग्रन्थनितैं टीकाकार लिख्या है सो आगें लिखियेगा । आगे विशेष भेदनिकूं कहे हैं, - पडिसमयं सुज्झतो अणतगुणिदाए उभयसुद्धीए । पढमं सुक्कं ज्झायदि आरूढो उभय सेणीसु ॥ ४८२ ॥ भाषार्थ - उपशमक अर क्षपक इनि दोकं श्रेणीनि विषै आरूढ हूवा संता समय समय अनंतगुणी विशुद्धता कर्मका उपशमरूप तथा क्षयरूपकरि शुद्ध होता संता मुनि प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार नामा ध्यावै है. भावार्थ - इल

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