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(२७६) र्शन ज्ञान स्वरूप चैतन्यस्वभाव सो याका एही धर्म है. बहुरि क्षमादिक भाव दश प्रकार सो धर्म हैं. बहुरि रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र सो धर्म है. बहुरि जीवनिकी रक्षा करना सो भी धर्म है. भावार्थ-अभेदविवक्षाकरि तौ वस्तुका स्वभाव सो धर्म है जीवका चैतन्य स्वभाव सो ही याका धर्म है. बहुरि भेद विवक्षाकरि दशलक्षण उत्तम क्षमादिक तथा रत्नत्रयादिक धर्म है. बहुरि निश्चयते तो अपने चैतन्यकी रक्षा विभावपरिणतिरूप न परिणमना अर व्यवहारकरि परजीवकौं विभावरूप दुःख क्लेशरूप न करना ताहीका भेद जीवकौं प्राणांत न करना यह धर्म है ॥ ४७६ ॥ ___ आगे धर्मध्यान कैसे जीव होय सो कहै हैं,धम्मे एयग्गमणो जो ण हि वेदेइ इंदियं विसयं । वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स ॥ ७ ॥ ___ भाषार्थ-जो पुरुष ज्ञानी धर्मविर्षे एकाग्रमन होय वत्ते, बहुरि इन्द्रियनिके विषयनिकौं न वेदै. बहुरि वैराग्यमयी होय, तिस बानीकै धर्मध्यान होय है. भावार्थ-ध्यानका स्व रूप एक ज्ञेयकै विष ज्ञानका एकाग्र होना है. जो पुरुष ध. मविष एकाग्रचित्त करै तिस काल इन्द्रिय विषयनिकौं न वेदै ताकै धर्मध्यान होय है. याका मूल कारण संसारदेहभोगसं वैराग्य है विना वैराग्यके धर्ममें चित्त भै नाहीं ॥७७॥ सुविसुद्धरायदोसो वाहिरसंकप्पवज्जिओ धीरो।