Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 288
________________ (२७५ ) बहुरि अपनी विषय सामग्रीकूं राखने का अति यत्न करै ताकी रक्षाकरि आनन्द माने ऐतैं ये दोष भेट रौद्रध्यानके भये. ऐसैं ये चारों भेदरूप रौद्रध्यान अतितीव्र कषायके योग होय हैं, महापाप रूप हैं. महापापबन्धकूं कारण हैं. सो धर्मात्मा पुरुष ऐसे ध्यानकौं दूरिहीतें छोडे हैं. जेते जगतकौं उपद्रव के कारण हैं तेते रौद्रध्यानयुक्त पुरुष वर्णै है. जातैं पापकरि हर्षमानै सुख मानै ताकौ धर्मका उपदेश भी नाहीं लागे है. अति प्रमादी हूवा अचेत पानी में मस्त रहै है || ४७४ ॥ आगे धर्मध्यानकूं कहें हैं, - विण्णिवि असुहे ज्झाणे पावणिहाणे य दुक्खसंताणे । च्चा दूरे वज्जह धम्मे पुण आयरं कुणहु ॥ ७५ ॥ भाषार्थ - हे भव्य जीव हो ! श्रार्च रौद्र ये दोऊं ही ध्यान अशुभ हैं पापके निधान दुःखके संतान जाणिकरि दृरिहीर्ते छोडौ, बहुरि धर्मध्यानविषै आदर करौ. भावार्थ - मार्चरौद्र दोऊं ही ध्यान अशुभ हैं भर पाएके भरे हैं अर दुःखहीकी संतति इनिमें चली जाय है. तातैं छोडिकरि धर्मध्यान क रनेका श्रीगुरुनिका उपदेश है ।। ४७५ ।। धर्मका स्वरूप है हैं, - धम्मो वत्सहावो खमादिभावो य दसावहो धम्मो । रयणचयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ७६ ॥ भाषार्थ - वस्तुका स्वभाव सो धर्म है. जैसे जोबका द

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