Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 290
________________ (२७७) एयग्गमणो संतो जं चिंतइ तं पि सुहज्झाणं ॥७८॥ ____ भाषार्थ-जो पुरुष रागद्वेषः रहित हूवा संता बाबके संकल्पकरि वर्जित हूवा धीरचित एकाग्रपन हूवा सन्ता जो चितवन करै सो भी शुभध्यान है. भावार्थ-जो रागद्वेषमयी वा वस्तुसंबन्धी संकल्प छोडि एकाग्रचित्त होय काहूका चलाया न चलै ऐसा होय चितवन करे सो भी शुभ ध्यान है॥ ४७८ ॥ ससरूवसमुन्भासो णट्टममचो जिदिदिओ संतो। अप्पाणं चिंतंतो सुहज्झाणरओ हवे साहू ॥ ७९ ॥ भाषार्थ-जो साधु अपने स्वरूपका है समुद्भास कहिये प्रगट होना जाकै ऐसा हुवासंता, तथा परद्रव्यविषै नष्ट भया है ममत्व भाव जाकै ऐसा हूवा संता, तथा जीते हैं इन्द्रिय जान, ऐसा हुआ संता आत्माकौं चितवन करता सन्ता प्रव सो साधु शुभध्यानकेविरें लीन होय है. भावार्थ-जाकै अपना स्वरूपका तो प्रतिभास भया होय अर परद्रव्यविष म. मत्व न करै अर इन्द्रियनिकौं वश कर ऐसे प्रात्माका चितवन करै सो साधु शुभ ध्यानविष लीन होय है, अन्यकै शुभध्यान न होय है ॥ ४७९॥ बजियसयलवियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुभित्ता। जं चिंतइ साणंदं तं धम्मं उत्तम झाणं ॥४८॥ — भाषार्थ--जो समस्त अन्य विकल्पनिकू बर्जकरि आत्म

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