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ताकेँ वैयावृत्य नामा तप होय है. सो कैसे करे आप अपने पूजा महिमा प्रादिविषै अपेक्षा वांछातें रहित जैसें होय तैसें करे. भावार्थ - निस्पृह हूवा मुनिनिकी चाकरी करै सो वैयाहृत्य है. तहां प्राचार्य उपाध्याय तपस्वी शैक्ष्य ग्लान गण कुल संघ साधु मनोज्ञ ये दश प्रकार के यति वैयावृत्य करने योग्य कहे हैं. तिनका यथायोग्य अपनी शक्तिसारूं वैयानृत्य करे ।। ४५७ ॥ जो वावरइसरूवे समदमभावाम्म सुद्धिउवजुत्तो । लोयववहारविरदो विज्ञावचं परं तस्स ॥ ४५८ ॥
भाषार्थ - जो मुनि शपदमभावरूप जो अपना आत्मस्वरूप ताके विषै शुद्ध उपयोगकरि युक्त हूवा प्रवर्तै अर लोकव्यवहार बाह्य वैयावृत्यसं विरक्त होय, ताकै उत्कृष्ट निश्चय वैयावृत्य होय है. भावार्थ- जो मुनि सम कहिये राग द्वेष रहित साम्यभाव, बहुरि दम कहिये इन्द्रियनिकौं विषय निर्विषै न जाने देना, ऐसा जो अपना आत्मस्वरूप ताविषै लीन होय, ताकै लोकव्यवहाररूप बाह्य वैयावृत्य काहे होय ? ताकै निश्चय वैयावृत्य ही होय है. शुद्धोपयोगी मुनिनिकी यह रीति है ॥ ४५८ ॥
आगे स्वाध्याय तपकौं छह गाथानिकरि कहे हैं, -- परततीणिरवेक्खो दुट्टवियप्पाण णासणसमत्थो । तच्चविणिच्चयहेदू सज्झाओ झाणसिद्धिय ॥ ४५९॥ भाषार्थ - जो मुनि परकी निन्दाविषै निरपेक्ष होय बां