Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 282
________________ (२६९) जन है. दुष्ट अभिमायतै पढे ताका निषेध है ॥ ४६२॥ जो अप्पाणं जाणदि असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं । जाणगरूवसरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥ ४६॥ ___ भाषार्थ-जो मुनि अपने आत्माकौं इस अपवित्र शरीरसे भिन्न ज्ञायकरूप स्वरूप जाणे सो सर्व शास्त्र जाणै.भा. वार्थ-जो मुनि शास्त्र अभ्यास अल्प भी कर है पर अपना प्रात्माका रूप ज्ञायक देखन जाननहारा इस अशुचि शरीर” भिन्न शुद्ध उपयोगरूप होय जाणे है, सो सर्व ही शास्त्र जान है. अपना स्वरूप न जान्या पर बहुत शास्त्र पढे तौ कहा साध्य है ? ॥ ४६३ ॥ जो ण विजाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं । सो ण विजाणदि सत्थं आगमपाढं कुणंतो वि १६४ भाषार्थ-जो मुनि अपने प्रात्माकौं ज्ञानस्वरूप शरीरतें भिन्न नाहीं जाने है मो आगमका पाठ करै तौऊ शास्त्र कौं नाहीं जाने है. भावार्थ-जो मुनि शरीर” भिन्न ज्ञानस्व.. रूप प्रात्माकौं नाहीं जाने है सो बहुत शस्त्र पढे है तोऊ विना पढ्या ही है. शास्त्रके पढनेका सार तौ अपना स्वरूप जानि रागद्वेषरहित होना था सो पढिकर भी ऐसान भया' तो काहेका पढ्या ? अपना स्वरूप जानि ताविष स्थिर होना. सो निश्चयस्वाध्यायतप है. वाचना पृच्छना अनुप्रेक्षा पानाय धर्मोपदेश ऐसे पांचप्रकार व्यवहारस्वाध्याय है सो

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