Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ (२७०) यह व्यवहार निश्चयके अर्थ होय सो व्यवहार भी सत्यार्य है विना निधय व्यवहार थोथा है ॥ ४६४॥ ___ आर्गे व्युत्सर्ग तपकौं कहै हैं,जल्लमललितगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो । मुहधोवणादिविरओ भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो ६५ ससरूवचिंतणरओ दुजणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममचो काओसग्गो तवो तस्स ॥ ६६ ॥ भाषार्थ-जो मुनि जल्ल कहिये पसेव पर मल तिनि. करि तौ लिप्त शरीर होय, बहुरि सह्या न जाय ऐसा भी तीव्र रोग आवै, ताका प्रतीकार न कर इलाज न करै, मु. खका धोवणा आदि शरीरका संस्कार न करै भोजन अर सेज्या आदिकी बांछा न करै, बहुरि अपने स्वरूप चिंतबनविव ग्त होय, लीन होय, बहुरि दुर्जन सजनविष मध्यस्थ होय, शत्रु मित्र वराबर जानै, बहुत कहा कहिये दे. हविषै भी मानारहित होय, ताकै कायोत्सर्ग नामा तप होय है. मुनि कायोत्सर्ग करै है, तब सर्व बाह्य अभ्यंतर परिग्रह त्यागकरि सर्व बाह्य पाहारविहारादिक क्रियासू रहित होय कायस् ममत्व छांडि अपना ज्ञानस्वरूप आत्माविषै रागद्वेषरहित शुद्धोपयोगरूप होय लीन होय है, विस काल जो प्र. नेक उपसर्ग आवो, रोग प्रायो, कोई शरीरकौं काटि ही डारी, स्वरूप चिग नाही, काहः रागद्वेष नाहीं उपजावै है ताकै कायोत्सर्ग तप होय है ।। ४६५-४६६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306