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(१९२) काम जाणे तिप्त अनुसार करवो करै. यह अणुव्रतका बडा उपकारी है ॥ ३५० ॥
भागें भोगपभोगकी छती बस्तुकं छोडै है ताकी प्रशं. सा करै है,जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदेहि । जो मणुलड्डुव भनखदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ॥
भाषार्थ-जो पुरुष छती वस्तु छोडै है त के वनवू सुरेन्द्र भी सग है प्रशंसा करै है बहुरि अणछतीका छो. दणा तौ ऐसा है जैसे लाडू तो होय नाहीं अर संकल्पमात्रमनमें लाडूकी कल्पनाकार लाडू ग्वाय तैसा है. सो अणछत्ती वस्तु तौ संकल्पमात्र छोडी ताकै वह छोडना व्रत तो है प. रन्तु अल्पसिद्धि करनेवाला है. ताका फल थोडा है. इहां कोई पूछे भोगोपभोग परिमाणकू तीसरा गुणवूत कया सो तत्त्वार्थसूत्रविष तौ तीसग गुणवत देशवत कहया है भोगपभोग परिमाणकू तीसरा शिक्षावून कथा है सो यह कैसे ? ताका समाधान-जो यह प्राचार्यनिकी विवक्षाका विचित्रपणा है. स्वामी समंतभद्र आचार्यने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें इहां कह्या वैसे ही कहथा है सो यामैं विरोवनाही. इहां तौ अणुव्रतकी उपकारीकी अपेक्षा लई है अर तहां सचित्तादि भोग छोडनेकी अपेक्षा मुनिव्रतकी शिक्षा देनेकी अपेक्षा लई है किछू विरोध है नाहीं. ऐसें तीन गुणवतका व्याख्यान किया ॥३५१ ।।