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भाषार्थ-जो भयकरि तथा लज्जाकरि तथा लाभकार हिंसाके आरम्भकौं धर्म नाहीं माने, सो पुरुष अमृढदृष्टिगुण संयुक्त है. कैसा है जिनवचनविषै लीन है भगवानने धर्म अहिंसा ही कया है ऐसी दृढ श्रद्धा युक्त है. भावार्थ-अन्य मती यज्ञादिक हिंसा धर्म थापै है ताकौं राजाके भयतै तया काह व्यन्तरके भय तथा लोककी लज्जा तथा किछु ध. नादिकके लाभत इत्यादि अनेक कारण हैं तिनित धर्म न मानै ऐसी श्रद्धा राद जो धर्म तौ भगवानने अहिंसा ही कह्या है ताकै अमूढदृष्टि गुण है. इहां हिंसारम्भके कहने में हिंसाके प्ररूपक देव शास्त्र गुरु आदिविष भी मूढष्टि न होय है ऐसा जानना ।। ४१७॥
भागें उपगृहन गुणकौं कहै हैं,जो परदोसं गोवदि णियसुकयं णो पयासदे लोए। भवियव्वभावणरओ उवगृहणकारओ सो हु ४१८ ___ भाषार्थ--जो सम्यग्दृष्टी परके दोषकौं तौ गोपै ढाकै ब हुरि अपना सुकृत कहिये पुण्य गुण लोकविर प्रकाश नाही कहता न फिरै. बहुरि ऐसी भावनामें लीन रहै जो भवितव्य है सो होय है तथा होयगा सो उपग्रहन गुण करने वाला है. भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके ऐसी भावना रहे है जो क. मका उदय हे तिस अनुसार मेरे लोकमें प्रवृत्ति है सो होणी है सो होय है. ऐसी भावनाते अपना गुणको प्रकाशता फिर नाही, परके दोष प्रगट करै नाही, बहुरि साधर्मी जन तथा