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बहुरि जाकै इन्द्रियसुखकी वांछा होय ताकै निःकांक्षित गुण नाहीं होय. इन्द्रिय सुखकी बांछातें रहित भये ही नि:कांक्षित गुल होय. ऐसें आठ गुण के संभवने के तीन विशेषण हैं |
आगे एक हैं- ये आठ गुण जैसे धर्मविषै कहे तैसें देव गुरु आदिविषै भी जानने, णिस्संका पहुदिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुचे । जाणेहि जिणमयादो सम्म विसोहया एदे ॥ २४ ॥
भाषार्थ - ए निःशंकित आदि आठ गुण कहे ते धर्मविषे प्रकट होते कहे तैसे ही देवके स्वरूपविषै तथा गुरुके स्वरूपविषै तथा षद्रव्य पंचास्तिकाय सप्त तत्व नव पदाथेनिके स्वरूपविषै होय हैं. निनिकौं प्रवचन सिद्धान्ततैं जानने. ए आठ गुण सम्यक्त्वकौं निरतिचार विशुद्ध करने - वाले हैं. भावार्थ - देव गुरु तत्वविषै शंका न करणी, तिनिकी यथार्थ श्रद्धा इन्द्रिय सुखकी बांछा रूप कांक्षा न करणी, तिनिमें ग्लानि न ल्यावनी, तिनिविषै मूढदृष्टि न राखणी, तिनिके दोषनिका अभाव करना तथा तिनिका ढांकना, तिनिका श्रद्धान दृढ करना, विनिकै वात्सल्य विशेष अनुराग करना, तिनकी महिमा प्रकट करनी ऐसें म्राठ गुण इनिविषै जानने. इनिकी कथा आगे सम्यग्दृष्टो भये तिनिकी जिनशास्त्रनितें जाननी, अर ये आठों गुण सम्पक्त्वके अतीचार दूरकरि निर्मल करनहारे हैं ऐसें जानना ।। ४२४ ॥