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(२६०) न करावै दोष करता होय ताळू इष्ट भला न जाणे तिसकै उत्कृष्ट विशुद्धि होय है. भावार्थ-इहां विशुद्धि नाम प्रायश्चिः तका है जातें 'प्रायः' शब्दकरि तौ प्रकृष्ट चारित्रका ग्रहण है ऐसा चारित्र जाके होय सो 'माया' कहिये साधु लोक ताका चित्त जिस कार्यविष होय है सो प्रायश्चित्त कहिये, सो आत्माकै विशुद्धि करै सो पायश्चित है बहुरि दुसरा अर्थ ऐसा भी है जो प्रायः नाम अपराधका है ताका चित्त कहिये शुद्ध करना सो भी प्रायश्चित्त कहिये. ऐसे पूर्व कीये अपराधते जातें शुद्धता होय सो प्रायश्चित्त है. ऐसे जो मुनि मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि दोष नाही लगावै ताकै उत्कृष्ट विशुद्धता होय. यही प्रायश्चित्तं नामा तप है ।। ४४९॥ अह कहवि पमादेण य दोसो जदि एदितं पि पयडेदि णिदोससाहुमूले दसदोसविवज्जिदो हो, ॥ ४५० ॥ ___ भाषार्थ-अथवा कोई प्रकार प्रमादकरि अपने चारित्रमें दोष आया होय तौ ताईं निर्दोष जे साधु प्राचार्य उनके निकट दश दोषवर्जित होयकरि प्रकट करै आलोचना करै. भावार्थ-अपने चारित्रमें दोष प्रमादकरि लग्या होय तौ
१ यत्याचारोक्तं दशप्रकारे प्रायश्चित्तं । १ आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विओसग्गो। बवछेदो मूलं,पि य परिहारा चेव सद्दहणं ॥