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(२६२) कहै ऐसा ही दोष मोकं लाग्या है ताका नाम प्रकट न करें सो प्रच्छन्न दोष है. बहुरि बहुत शब्दका कोलाहल विष दोष कहै अभिप्राय ऐसा कोई और न सुणै तहां शब्दाकुलित दोष है. बहुरि गुरु पासि आलोचनाकरि फेरि अन्य गुरुपासि आलोचना करै अभिप्राय ऐसा जो याका प्रायश्चित्त देखें, अन्य गुरु कहा क्तावै, ऐसैं बहुजननामा दोष है. ब. हुरि जो दोष व्यक्त होय सो कहै अभिप्राय ऐसा-जो यह दोष छिपाया छिपे नाहीं कहया ही चाहिये. सो अव्यक्त दोष है. बहुरि अन्य मुनिने लाग्या दोषकी गुरुषासि आलोचनाकरि प्रायश्चित्त लिया देखकरि तिल समान आपकू दोष लाग्या होय ताकी आलोचना गुरुषासि न करै आपही प्रा. यश्चित्त लेवे, अभिप्राय दोष प्रगटकरनेका न होय सो त. सेवी दोष है. ऐसे ददोषरहित सरलचित्त होय बालककी ज्यों आलोचना करै ।। ४५० ॥ जं किंपि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सखाए। जो पुण हियए संकदि किं थोवं किमु वहुवं वा ४५१
भाषार्थ-दोषकी आलोचना करे पीछे जो किछु आचार्य प्रायश्चित्त दीया तिस सर्व ही• श्रद्धाकरि कर. हृदयविष ऐसे शंका संदेह न करै जो ए प्रायश्चित्त दिया सो थोडा है कि बहुत है. भावार्थ-प्रायश्चित्त के तत्त्वार्थ सूत्रमें नव भेद कहे हैं. आलोचन प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युसर्ग तपश्च्छेद परिहार उपस्थापना, तहां पालोचना नौ