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( २५४ ) उववासं कुव्वाणो आरंभ जो करेदि मोहादो । तस्स किलेसो अवरं कम्माणं णेव णिज्जरणं ॥ ४० ॥
भाषार्थ - जो उपवास करता संता मोहतें आरंभ गृहकार्यादिक्कं करै है ता पहिलै तौ गृहकार्यका क्लेश था ही बहुरि दुसरा भोजन विना क्षुधा तृष्णाका क्लेश भया ऐसें होतें क्लेश ही भया कर्मका निर्जरण तौ न भया. भावार्थआहारको तौ छोडै र विषय कषाय आरंभकूं न छोडे ताकै मागें तौ क्लेश था हो दुसरा क्लेश भूख तिसका भया ऐसे उपवास में कमकी निर्जरा कैसे होय १ कपकी निर्जरा तौ सर्व क्लेश छोडि साम्यभाव करें होय है, ऐसा जानना ॥ ४४० ॥
आगें अवमोदर्य तपकूं दोय गाथाकरि कहै हैं, - आहारगिरिहिओ चरियामग्गेण पासुगं जोग्गं । अप्पयरं जो भुंजइ अवमोदरियं तवं तस्स ॥ ४१ ॥
भषार्थ - जो तपस्वी आहारकी अनिचाहरहित हूवा सुत्रोक्त चर्याका मार्गकरि योग्य प्रासूक आहार अतिशय करि अल्प ले, तिसकै अमोदर्य तप होय है. भावार्थ- मुनि श्राहारके छियालीस दोष टाले है बत्तीस अंतराय टाले है चौ. दह मल रहित मासु योग्य भोजन ले है तौऊ ऊनोदर तप करे, तामें अपने आहार के प्रमाण थोडा ले, एक ग्रासतें