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(२५७) ताका समाधान, वृत्ति परिसंख्यानमें तौ अनेक रीतिनिकी संख्या हैं इहां रसहीका त्याग हैं यह विशेष है. बहुरि यह भी विशेष जो रसपरित्याग तो बहुत दिनका भी होय ताडूं श्रावक जाणि भी जाय र वृत्तिपरिसंख्यान बहुत दिनका. होय नाहीं ॥ ४४४ ॥
भागें विविक्तशय्यासन तपळू कहै हैं,जो रायदोसहेदू आसणसिज्जादियं परिचयई। अप्पा णिविसय सया तस्स तवो पंचमो परमो॥
भाषार्थ-जो मुनि रागद्वेषके कारण जे भासन पर शय्या इनि आदिकौं छोडे बहुरि सदा अपने प्रात्मस्व. रूपविषै बसे भर निषिय कहिये इन्द्रियनिके विषयनित विरक्त होय तिम मुनिके पांचमा तप विविक्तशय्यासन उत्कृष्ट होय है. भावार्थ-आसन कहिये बैठनेका स्थान अर शय्या कहिये सोचनेका स्थान, भादि शब्दसे मलमूत्रादि क्षेपनेका स्थान, ऐसा होय जहां रागद्वेष न उपनै अर वीतरागता बघे ऐसा एकान्त स्थानक होय तहां बैठे सोवै. जाते मुनिनिकौं अपना अपना स्वरूप साधना है इन्द्रियविषय सेवने नाहीं हैं तातै एकान्त स्थानक कहा है ॥ ४४५ ॥ पूजादिसु णिरवेक्खो संसारसरीरभोगणिविण्णो । अभंतरतवकुसलो उवसमसीलो महासंतो ॥ ४४६॥ जो णिवसेदि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे।