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कहै हैं जो जीव लक्ष्मी चाहे हैं सो धर्मविना कैसे
होय :लच्छ बंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणई । वीएण विणा कुत्थ वि किं दीसदि सस्सणिप्पत्ती ॥२७॥
भाषार्थ - यह जीव लक्ष्मीकों चाहे है बहुरि जिनेन्द्रका का मुनि श्रावक धर्मविषै आदर प्रीति नाहीं करै है तौलक्ष्मीका कारण तौ धर्म है, तिस विना कैसे वे ? जैसे वीज विना धान्यकी उत्पत्ति कहूं दीखै है ? नाहीं दीखे है. भावार्थ - बीज विना धान्य न होय तैसें धर्मविना संपदा न होय यह प्रसिद्ध है || ४२७ ॥
या धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति कहे हैं, - जो धम्मत्थो जीवो सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं ता परदव्वं वज्जइ जणणिसमं गणइ परदारं ॥ २८ ॥
भाषार्थ - जो जीव धर्मविषै तिष्ट है सो वैरीनिके समू हविषै क्षमाभाव कर है बहुरि परका द्रव्यकों तजै है, अंगीकार नाहीं करै है . बहुरि परकी स्त्रीकूं कन्या माता बहन समान गिणे है ॥ ४२८ ॥
ता सव्वत्थ वि कित्ती ता सव्वस्स वि हवेइ वीसासे । ता सव्वं पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणई ॥ २९॥
भाषार्थ - जो जीव धर्मविषै तिष्टै है तो सर्व लोकमें ताकी कीर्त्ति होय है. बहुरि ताका सर्वलोक विश्वास करें