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समान होय है, बहुरि हलाहल जो जहर सो भी अमृतसमान परिणवै है, बहुत कहा कहिये महान् बडी भापदा भी संपढ़ा होय जाय है ॥ १ ॥
आलियवयणं पि सञ्चं उज्जमरहिये विलच्छि संपत्ती | धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि ३२
भाषार्थ - धर्म के प्रभावकरि जीवके मूंठ वचन भी सत्य वचन होय हैं, बहुरि उद्यम रहितके भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होय है बहुरि अन्यान्य कार्य भी सुखका करनहारा होय है भावार्थ - इहां यह अर्थ जानना जो पूर्वै धर्म सेया होय तौं ताके प्रभाव इहां झूठ बोलै सो भी सांची होय जाय. उयमविना भी संपत्ति मिले, अन्याय चालै तौ भी सुखी रहै. अथवा कोई झूठ वचनका तूदा ( वायदा) लगावै तौ धीजमें ( अंत में) सांचा होय, अन्याय कीया लोक कहै है तौ न्यायवालेकी सहाय ही होय ऐसा भी जानना । धर्मरहित जीवकी निंदा कहै हैं,देवो विधम्मचचोमिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की विधानरहिओ णिवडइ णरए ण संपदे होदि
भाषार्थ - धर्मकरि रहित जीव हैं सो मिध्यात्वका वसकरि देव भी वनस्पतिका जीव एकेन्द्रिय आय होय है. बहुरि चक्रवर्ती भी धर्मकरि रहित होय तब नरकविषै पडै है जातें पाप है सो संपदा अर्थ नाहीं है ।