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(२४९) है. बहुरि सो पुरुष सर्वौं प्रियवचन कहै है जात कोई दुःख न पावै है. बहुरि सो पुरुष अपने घर परके मनकौं शुद्ध उ. ज्वल करै है कोईके यासू कालिमा न रहै. तैसैं याकै भी कोईसं कालिमा न रहै है. भावार्थ-धर्म सर्वप्रकार सुखदाई है।
आगे धर्मका माहात्म्य कहै हैं,उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ॥ ४३०॥
भाषार्थ-सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मकरि संयुक्त जीव है सो तिर्यंच भी देव पदईकौं पावै है. बहुरि चांडाल है सो भी देवनिका इन्द्र प्तम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मकरि होय है। अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तम रयणं जीवस्स सुधम्मादो देवा विय किंकरा होंति ॥३॥
भाषार्थ-या जीवकै उत्तम धर्मः अग्नि तौ हिम (शीतल पाला) हो जाय है. बहुरि सर्प है सो उत्तम रत्ननिकी माला हो जाय है बहुरि देव हैं ते भी किंकर दास होय हैं। उकं च गाथा,-- तिक्खं खग्गं माला दुजयरिउणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पिआमयं महापया संपया होदि ॥१॥ __ भाषार्थ-उत्तम धर्म सहित जीवकै तीक्ष्ण खड्ग सो फूलमाला होय जाय है. बहुरि दुर्जय इसा जो जीत्या न जाय रिषु जो वैरी सो भी सुखका करवावालासुजन कहिये मित्र