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(२४३) पूज्य पुरुषनिमें कोई कर्मके उदयनै दोष लागे तो ताओं छिपावै, उपदेशादिकरि दोष छुडावै, ऐसै न करै जामें किनिकी निन्दा होय, धर्मकी निन्दा होय, धर्म धर्मात्ममें दोपका अभाव करना है सो छिपावना भी अभाव ही करना है. जाकौं लोक न जानै सो प्रभाव तुल्य ही हैं ऐसे उपगृहन गुण होय है ॥ ४१८॥ ___आगे स्थितिकरण गुणकौं कहै हैं,धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं पि सुदिढयदि ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥ ___ भाषार्थ-जो अन्यकौं धर्म में चलायमान होतेकौं धर्मविषै स्थापै तथा अपने प्रात्माकौं भी चलनेते रद कर तिसकै निश्चयः स्थितिकरण गुण होय है. भावार्थ-धर्म” चिगनेके अनेक कारण हैं सो निश्चय व्यवहाररूप धर्मः परकौं तथा आपकू चिगता जाणि तथा उपदेश” तथा जैसे होय तेसैं दृढ करे, ताकै स्थितिकरण गुण होय है ॥ ४१९ ॥ __आगें वात्सल्य गुणकू कहै हैं,जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। पियवयणं जपंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥ ४२०॥
भाषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी जीव धार्मिक कहिये सम्यग्दृष्टी श्रावक मुनि निविष तौ भक्तिवान् होय, बहुरि तिनिके अ. नुसार प्रवर्त्त, परम श्रद्धाकरि प्रियवचन बोलता संता प्रवत्त