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(२१७) हिये उत्तम क्षमाकौं प्रादि देकर दश प्रकारका धर्म तिसकरि नित्य कहिये निरन्तर परिणाप सहित होय, बहुरि मध्यस्थ कहिये सुखदुःख तृण कंचन लाभ अलाभ शत्रु मित्र निन्दाप्रशंसा जीवन मरण आदिविष समभावरूप वर्ते, रागद्वेषकरि रहित होय, सो साधु कहिये. तिसहीकौं धर्म कहिये, जाते जामें धर्म है, सो ही धर्मकी मूर्ति है, सो ही धर्म है। भावार्थ-इहां रत्नत्रयकरि सहित कहने में चारित्र तेरहपकार है सो मुनिका धर्म महावत आदि है सो वर्णन किया चाहिये. सो यहां दश प्रकार धर्मका विशेष वर्णन है तामें महाव्रत आदिका भी वर्णन गर्भित है सो जानना ॥३९२ ॥ ___ अब दशप्रकार धर्मका वर्णन करै हैं,सो चिय दहप्पयारो खमादि भावेहिं सुक्खसारेहि । ते पुण भणिज्जमाणा मुणियव्वा परमभत्तीए ३९३
भाषार्थ-सो मुनिधर्म क्षमादि भावनकरि दश प्रकार है कैसा है सौख्यसार कहिये सुख यात होय है. अथवा सुख याविषे है अथवा सुखकरि सार है ऐसा है. बहुरि ते दशप्रकार आगे कह्या हुवा धर्म भक्तिकरि, उत्तम धर्षानुरागकरि जानने योग्य है. भावार्थ-उत्तमक्षमा, मार्दव, आजेव, सत्य, शौच, संयम, तपः, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य ऐसे दश प्रकार मुनिधर्म है सो याका न्यारा न्यारा व्याख्यान आगे करै हैं सो जानना ॥ ३९३ ।।