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( २३२ ) होय इनिकं अनंतानुंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण संज्वलन कोष मान माया लोभ रूप सोलह कषायनित गुणे सतराहजार दोयसे अस्सी १७२८० होय भर अचेतन स्त्रीके सातसौ बीस भेद मिलाये अठारह हजार १८००० होय ऐसें भेद हैं बहुरि इनि मेदनिकू अन्य प्रकार भी कीये हैं सो अन्य ग्रन्थनितें जानने, ए आत्माकी पश्णतिके विकारके भेद हैं सो सर्व ही छोडि अपने स्वरूप में रमै तब ब्रह्मचर्य धर्म उत्तम होय है ॥ ४०३ ॥
मागे शीलवानकी बडाई कहे हैं, उक्तं च, जो ण वि जादि वियारं तरुणियण कडक्खवाणविद्धोवि सो चैव सूरसूरो रणसूणो णो हवे सूरो ॥ १ ॥
भाषार्थ - जो पुरुष स्त्रीजन के कटाक्षरूप बाणनिकरि विंध्या भी विकारकूं प्राप्त न होय है सो शूरवीरनिमें प्रधान है, अर जो रणविषै शूरवीर है सो शूरवीर नाहीं है. भावार्थयुद्धमें साम्हा होय मरनेवाले तो सूरवीर बहुत हैं अर जे स्त्री वश न होय हैं ब्रह्मचर्यव्रत पालें हैं ऐसे विरले तेही बढे साहसी हैं शूरवीर हैं, कामको जीतनेवाले ही बड़े सुभट हैं । ऐसे यह दश प्रकार धर्मका व्याख्यान कीया । आगे याकूं संकोच हैं, -
एसो दहप्पयारो धम्मो दहलक्खणो हवे णियमा । अपणो ण हवदि धम्मो हिंसा सुहमा वि जत्थ त्थि ॥