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( २३७ ) जो अहिलसेदि पुणं सकसाओ विसयसोक्खतह्वाए दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ४१० ॥
भाषार्थ - जो कषायसहित भया संता विषयसुखकी तृपुण्यकी अभिलाषा करे है तार्के विशुद्धता मंदक - वायके अभावकरि दूर व है. बहुरि पुण्य कर्म है सो वि शुद्धता है मूल कारण जाका, ऐसा है. भावार्थ - जो विषयनिकी तृष्णाकरि पुण्यकौं चाहे है सो तीव्र कषाय है. अर पुण्यबंध होय सो मंदकषायरूप विशुद्धि तातैं होय है सो राय चाहे ताकै आगामी पुरायबन्ध भी नाहीं होय है, निदानमात्र फल होय तौ होय ॥ ४१० ॥ पुण्णास ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती | इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥
भाषार्थ - जातें पुराकी बांधाकरि तौ पुण्यबन्ध नाहीं होय है अर बांछा रहित पुरुषकै पुरायका बंध होय है. तातें भी यतीश्वर हौ ऐसा जाणिकरि पुण्य विषै भी बांछा - दर मत करो. भावार्थ - इहां मुनिराजकौं उपदेश का है. जो पुण्यकी बातें पुरायबन्ध नाहीं तौ प्राशा मिटै बंधे है तातें भाशा पुण्यकी भी मति करौ, अपने स्वरूपकी प्राप्तिकी आशा करौ ॥ ४११ ॥
पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसा एहि परिणदो संतो ।
ता मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि बंछा ॥ ४१२