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(२३५) वार्थ-जाते धर्म भगवानने हिंसारहित कहा है ताः देव गुरुके कार्यके निमित्त भी मुनि हिंसाका प्रारम्भ न करे. जे श्वेताम्बर कहै हैं सो मिथ्या है ॥४०६॥ ____ आगे इस धर्मका दुर्लभपणा दिखावै हैंइदि एसो जिणधम्मो अलहपुव्वो अणाइकाले वि। मिछत्तसंजुदाणं जीवाणं लद्धिहीणाणं ॥४०७॥
भाषार्थ-ऐसे यह जिनेश्वर देवका धर्म अनादि कालविध मिध्यावकरि संयुक्त जे जीव जिनिके कालादि कन्धि नाही भाई, तिनिकै अलब्धपूर्वक है पूर्वं कबहूं पाया नाही भावार्थ-मिथ्यात्वकी अलट जीवनिक अनादि कालतें ऐसी है जो जीव अजीवादि तत्स्वार्थनिका श्रद्धान कबहूं हूवा नाही, दिना तत्वार्थश्रद्धान अहिंसाधमकी प्राप्ति कसैं होय ? ४०७
आगे कहै हैं कि अलब्धपूर्वक धर्मकू पायकरि केवल पुण्यका ही आशय करि न सेवणा,एदे दहप्पयारा पावकम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायव्वा ४०८ ___भाषार्थ- दश पकार धर्मके भेद कहे, ते पापकर्मके तौ नाश करनेवाले कहे बहुरि पुण्य कर्मके उपजावन हारे कहे हैं परन्तु केवल पुण्यहीका अर्थ प्रयोजनकरिनाही अंगीकारकरने । भावार्थ-सातावेदनीय, शुभवायु, शुभनाम, शुभगोत्र तो पुण्यकर्म कहे हैं.अरच्यारिघातिकर्म भर असातावेदनीय अशु