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(२३८) भाषार्थ-जातें जीव है सो मंदकषायरूप परिणया संता पुरषको बांधे है. ताते पुण्यबंधका कारण मंदकषाय है, वांछा पुण्यबन्धका कारण नाहीं है. पुण्यबंध मंदकषायत होय है, अर याकी बांछा है सो तीव्र कषाय है. तात बांछा न करणी. निर्वाचक पुरुषकै पुण्य बंध होय है. यह लौकिक भी कहै है जो चाह करै ताकू किछू मिले नाही. विना चा. हिवालेकौं बहुत मिले है. तात बांछाका तौ निषेध ही है. इहां कोई पूछ अध्यात्म ग्रंथनिमें तौ पुण्यका निषेध बहुत कीया अर पुराणनिमें पुण्यहीका अधिकार है सो हम तौ यह जाणे हैं संसारमें पुण्यही बड़ा है, याहीत तो इहां इन्द्रियनिक सुख मिले हैं याहीत मनुष्य पर्याय, भली संगति, भला शरीर मोक्ष साधनेके उपाय मिल हैं, पापते नरक नि: गोद जाय तब मोक्षका भी साधन कहां मिले ? तातें ऐसे पुण्यकी बांछा क्यों न कीजिये ? ताका समाधान-यह वह्या सो तौ सत्य है परन्तु भोगनिके अर्थ केवल पुण्यकी बांछा का अत्यंत निषेध है भोगनिके अर्थ पुण्यकी बांछा करै ताके प्रथम तौ सातिशय पुण्य बंधै ही नाही, अर इहां तपश्चरणादिककरि किछ पुण्य बांधि भोग पावै, तहां प्रति तृष्णात भोगनिकौं सेवै तब नरक निगोद ही पावै अर बंध मोक्षके स्वरूप साधनेके अर्थ पुन्य पावै ताका निषेध है नाही,पुण्य. ते मोक्षसाधनेकी सामग्री मिलै ऐसा उपाय राख तौ तहां परंम्पराय मोतहीकी बांछा भई, पुण्यकी तौ बांछा न भई. जैसे कोई पुरुष भोजन करनेकी बांछाकरि रसोईकी सामग्री