________________
( २२० )
उत्तम तपश्चरण करणेका जाका स्वभाव होय. तौऊ जो प्रपने आत्मा मदरहित करें अनादररूप करे तिस मुनिके मार्दव नामा धर्मरत्न होय है. भावार्थ-सकल शास्त्रका जाननहारा पंडित होय तौऊ ज्ञानपद न करे. यह विचारै जो म बडे अवधि मन:पर्यय ज्ञानी हैं. केवलज्ञानी सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी हैं. मैं कहा हौं अलक्ष हौं, बहुरि उत्तम तप करें तौक ताका मद न करें. आप सब जाति कुल बल विद्या ऐश्वर्य तप रूप आदिकर सर्व बडे हैं तौऊ परकृत अपमानकों भी स हैं. तहां गर्वकरि कपाय न उपजावै तहां उत्तममार्दवधर्म होय है ।। ३९५ ।। आगे उत्तम
धर्मों कहे हैं
जो चिंते ण वंकं कुणदि ण वंकंण जंपए वकं । णय गोवदि णियदोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स ३९६
भाषार्थ - जो मुनि मनविषै वक्रता न चितवै, बहुरि कायकरि वक्रता न करै, बहुरि वचनकरि वक्रता न बोले, बहुरि अपने दोषनिक गोपै नाहीं, छिपाचै नाहीं, तिस मुनिकै आर्जव धर्म उत्तम होय है' भावार्थ- मनवचनकायदिषै सरलता होय जो मनमें विचारै सो ही वचनकरि करें, सो ही कायकरि करे, परकौं अलावा देने ठिगने निमित्त विचारना तो और कहना और करना और तहां माया कषाय प्रवल होय है. सो ऐसें न करें. निष्कपट होय प्रवर्ते, बहुरि अपना दोष