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(२२१) छिपावै नाही. जैसा होय तैसा बालकको ज्यों गुरुनिपासि कहै तहां उत्तम आर्जवधर्म होय है.।
आगें उत्तम शौचधर्मकौं कहैं हैं,समसंतोसजलेण य जो धोवदे तिहलोहमलपुंजं । भोयणगिडिविहीणो तस्स सुचित्तं हवे विमलं ३९७
भाषार्थ-जो मुनि समभाव कहिये रागद्वेषरहित परि-. गाम अर संतोष कहिये संतुष्ट भाव सो ही भया जल, ता. करि तृष्णा अर लोभ सो ही भया मलका समूह ताकौं धोवै. बहुरि भोजनकी गृद्धि कहिये अति चाह ताकरि रहित होय तिस मुनिका चित्त निर्मल होय है. ताकै उत्तम शौच धर्म होय है. भावार्थ-समभाव लौ तृण कंचनकौं समान जानना, अर संतोष संतुष्टपना, तृप्तिभाव अपने स्वरूप ही विषै सुख मानना, ऐसे भावरूप जलकरि, तृष्णा तौ भागामी मिलनेकी चाह अर लोभ पाये द्रव्यादिकविषै अति लिप्तपणा, ताके त्यागविणे अति खेद करना सो ही भया मल ताके धोक्नेनै मन पवित्र होय है बहुरि मुनिके अन्य त्याग नौ होय ही है. अर आहारका ग्रहण है ताविषै भी तीव्र चाह नाही राखै, लाभ अलाभ सरस नीरसविषै समबुद्धि रहै, तब उत्तम शौचर्म होय है. बहुरि लोभकी च्यारि प्रकार प्रवृत्ति है-जीवितका लोभ, आरोग्य रहनेका लोभ, इन्द्रिय बनी रहनेका लोभ, उपयोगका लोभ । वहां अपना पर अपने