Book Title: Swami Kartikeyanupreksha
Author(s): Jaychandra Pandit
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 240
________________ (२२७) जाय नाही. वेश्याकै जाय नाही. पापकर्म हिंसाकर्म होयतहां जाय नाही. दीनका घर, अनाथका घर, दानशाला, यह शाला, यज्ञ, पूजनशाला, विवाह आदि मंगल जहां होंग इनिकै आहार निमित्त जाय नाही. धनवानकै जाना किनिर्धनके जाना ऐसा विचार नाही. लोक निंद्य कुलके घर जाय नाही. दीनत्ति करै नाही. प्राशुक पाहार ले. आगममें कह्या तैसें दोष अंतराय टालि निर्दोष आहार ले, सो भिसाशुद्धि है. इहां लाभ अलाभ सरस नीरसविष समानबुदि राखै है. सो भिक्षा पांच प्रकार कही है. गोचर १ अक्षम्र. क्षण २ उदरानिपशमन ३ भ्रमराहार ४ गतेपूरण ५. तहां गऊकी ज्यों दातारकी सम्पदादिककी तरफ न देखै, जैसा पाया तैसा आहार लेनेहीमें चित्त राखै, सो गोचरी वृत्ति है. बहुरि जैसे गाडीको वांगि ग्राम पहुंचे, तैसें संयमका साधक काय, ताकं निर्दोष आहार दे संयम साथै, सो अक्षम्रक्षण है. बहुरि अग्नि लागीकू जैसे तैसे पाणीत बुझाय घर बचावै, तैसे क्षुधा श्रमिक सरस नीरस पाहारकरि बुझाय अपना परिणाम उज्ज्वल राखै सो उदरामिपशमन है. बहुरि भ्रमर जैसैं फूलकं बाधा नाहीं कर पर वासना ले, तैसे मुनि दातारकू बाधा न उपजाय आहार ले सो भ्रमराहार है. बहुरि जैसैं शुभ्र कहिये खाडा ताकू जैसे तैसे भरतकरि भरिये तैसैं मुनि स्वादु निःस्वादु आहारकरि उदर भरे सो गर्नपूरण कहिये. ऐसे भिक्षाशुद्धि है, बहुरि मल मूत्र श्लेष्म थूक आदि क्षेपै सो जीवनिळू देखि यत्नतें क्षेपै सो प्रतिष्ठा

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