________________
(२२९) इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स ४०० ____ भाषा-जो मुनि इस लोक परलोकके सुखकी अपेक्षा सूं रहित हूवा संता, बहुरि सुखदुःख शत्रु मित्र तृण कंचन निदा प्रशंसा प्रादिविषे रागद्वेषरहित समभावी हूवा संता अ. नेक प्रकार कायक्लेश करै है तिस मुनिके निर्मल तपधर्म होय है । भावार्थ-चारित्रके अर्थ जो उद्यम अर उपयोग करें सो तप कह्या है । तहां कायक्लेश सहित ही होय है. तातै मात्माकी विभावपरिणतिका संस्कार हो है ताळू मेटनेका उद्यम करें. अपने शुद्धस्वरूप उपयोग• चारित्रविष थांमै, तहां बडा जोरसू थंभै है सो जोर करना सो ही तप है। सो बाह्य अभ्यंतर भेदतें बारह प्रकार कह्या है । ताका वर्णन आगे चूलिकामें होयगा. ऐसे तप धर्म कह्या ॥ ४० ॥
आगें त्याग धर्मकू कहै हैं,-- जो चयदि मिट्ठभोज उवयरणं रायदोससंजणयं । वसदि ममत्तहेतुं चायगुणो सो हवे तस्स ॥ ४०१॥
भाषार्थ-जो मुनि मिष्ट भोजन छोडे,रागद्वेषका उपजाबनहारा उपकरण छोडै, ममत्वका कारण वसतिका छोडै, तिस मुनि के त्यागनामा धर्म होय है. भावार्थ-मुनिके संसार देह भोग के ममत्वका त्याग तो पहले ही है । बहुरि जिन वस्तूनिमें कार्य पडै है तिनिकू मुख्यकरि कहा है. पाहारसुं काम पडे