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(२१३) आगे उद्दिष्टविरतिप्रतिमाका स्वरूप कहै हैं,जो णव कोडिविसुद्ध भिक्खायरणेण भुजदे भोज्जं। जायणरहियं जोरगं उद्दिट्ठाहारविरओ सो ३९०
भाषार्थ-जो श्रावक भोज्य जो आहार ता• नवकोटि विशुद्ध कहिये मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाका पापकू दोष लागै नाहीं, ऐसा भिक्षाचरण करिले, तहां भी -याचना रहित ले. मांगिकरि न ले, सो भी योग्य ले,सचितादिक अयोग्य होय सो न ले, सो उद्दिष्ट आहारका त्यागी है. भावार्थ-घर छोडि मठ मंडपमें रहै, भिमाकरि पाहार ले जो याके निमित्त कोई आहार करै तौ, तिस आहारकू न ले, बहुरि मांगिकरि न ले, बहुरि अयोग्य मांसादिक तथा सचित्त आहार न ले, ऐसा उद्दिष्टविरत श्रावक है॥३९०।।
आगे अंतसमयविषै श्रावक आराधना करै ऐसे कहै हैं,जो सावयवयसुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि। सो अच्चुम्मि सग्गे इंदो सुरसेविओ होदि ३९१
भाषार्थ-जो श्रावक व्रतकरि शुद्ध पुरुष है अर अंत समय उत्कृष्ट आराधना दर्शनज्ञानचारित्रतपकं पाराधै है सो अच्युत स्वर्गविष देवनिकरि सेवनीक इन्द्र होय है. भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टी श्रावक ग्यारह प्रतिमाका निरतिचार शुद्ध व्रत पाले है, बहुरि अंत समय, मरणकालविङ्ग दर्शन ज्ञान चरित्र तप आराधनाकू पाराधै है सो अच्युत स्वर्ग: