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(१९७) दाणं चउविहं पि य सब्वे दाणाण सारयरं ॥३६१॥
- भाषार्थ-जो ज्ञानी श्रावक उत्तम मध्यम जघन्य तीन प्रकार पात्रनिके निमित्त दाताके श्रद्धा प्रादि गुणनिकरि युक्त होयकरि अपने हस्तकरि नवधा भक्ति करि संयुक्त हवा संता नितपति दान देहै. तिस श्रावकके तीसरा शिताव्रत होय है. सो दान कैसा है पाहार अभय औषध शास्त्रदानके भेदकरि च्यारि प्रकार है. बहुरि यह अन्य जे लौकिक धनादिकका दान तिनिमें अतिशयकरि सार है, उत्तम है. बहुरि सर्व सिद्धि अर सुखका करनहारा है. भावार्थ-तीन प्रकार पात्रनिमें उत्कृष्ट तौ मुनि, मध्यम अणुव्रती श्रावक, जघन्य अविरत सम्यग्दृष्टी हैं. बहुरि दातारके सात गुण श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, शक्ति ए सात हैं तथा अन्य प्रकार भी कहे हैं. इस लोकके फलकी बांछा नकरै, क्षमावान् होय, कपट रहित होय, अन्यदाताते ईर्षा न होय, दीयेका विषाद न करे, दीयेका हर्ष करै, गर्व न करें ऐसे भी मात कहे हैं. बहुरि प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजनकरणा, प्रणाम करणा, मनकी शुद्धता, वचनकी शुद्धता, कायकी शुद्धता, आहारकी शुद्धता ऐसें नवधा भक्ति है, ऐसे दातारके गुण सहित पात्रकू नवधा भक्तिकरि नित्य च्यारि प्रकार दान देहै ताके तीसरा शिक्षाबत होय है. यह भी मुनिपणकी शिक्षाके अर्थ है जो देना सीखै तैसे प्रापळू मुनिभये लेना होयगा ॥ ३६०-३६१॥