________________
( २०३ ) ज्झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ३७२
भाषार्थ - जो सम्यग् ष्टी श्रावक बारह आवर्त सहित च्यारि प्रणामसहित दोय नमस्कार करता संता प्रसन्न है आत्मा जाका, धीर दृढचित्त हूवा संता कायोत्सर्ग करै, तहां अपने चैतन्यमात्र शुद्ध स्वरूपकूं ध्यावता चितवन करता संता र अथवा जिनबिंब चितवता रहै. अथवा परमेष्ठोके वाचक पंच नमोकारकूं चितवता रहै. अथवा कर्मके उदयके रसकी जातिका चितवन करता रहे तार्के सामायिक व्रत होय है. भावार्थ - सामायिक वर्णन तौ पूर्वै शिक्षाव्रतमें कीया था जो राग द्वेष तजि समभावकरि क्षेत्र काल भासन ध्यान मन वचन कायकी शुद्धताकरि कालकी मर्यादाकरि एकांत स्थान में बैठे. सर्व सावद्ययोगका त्यागकरि धर्मध्यानरूप प्रवर्चे ऐसें कया था. इहां विशेष कह्या जो कायसूं मपत्त्र छोडि कायोत्सर्ग करे तहां यदि अंतविषै दोय तौ नमस्कार करै घर च्यारि दिशाके सन्मुख होय च्यारि शिरोनति करै, बहुरि एक एक शिरोनतिके विषै मन वचन कायकी शुद्धताकी सूचना रूप तीन तीन श्रावर्त्त करै ते बारह आवर्त भये ऐसें करि कायं ममत्व छोडि निज स्वरूपविषै लीन होय जिन प्रतिमासं उपयोग लीन करें, तथा पंचपरमेष्ठीका वाचक अक्षरनिका ध्यान करै, तथा उपयोग कोई बाधाकी तरफ जाय तौ तहां कर्मके उदयकी जाति चितवै. यह साता वेदनीका फल है. यह साताके उदयकी जाति हैं. यह अं
O'