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(२०८) जो वज्जेदि सचित्तं दुजय जीहा वि णिज्जिया तेण। दयभावो होदि किओ जिणवयणं पालियं तेण ३८१
अर्थ-जो श्रावक सचित्तका त्याग करै है तिसने जिहा इन्द्रियका जीतना कठिन सो भी जीती, बहुरि दयाभाव प्रगट किया, बहुरि जिनेश्वर देवके वचन पाले. भावार्थ-सचित्तका त्यागमें बडे गुण हैं. जिह्वा इन्द्रियका जीतना होय हैं . पाणीनिकी दया पलै है. बहुरि भगवानके वचन पलै है., जात हरित कायादिक सचित्तमें भगवानने जीव कहे हैं सो प्राज्ञा पालन भया. याका अतीचार जो सचित्ततें मिली वस्तु तथा सचित्त बंध संबंधरूप इत्यादिक हैं ते अतीचारलगावे नाहीं तब शुद्ध त्याग होय. तब प्रतिमाकी प्रतिज्ञा होय है. मोगोपभोग व्रतमें तथा देशावकाशिक व्रतमें भी सचित्तका त्याग कया है परन्तु निरतीचार नियमरूप नाही इहां नियमरूप निम्तीचर त्याग होय है. ऐसैं सचित्त त्यागपंचभी प्रतिमा अर बारहमेदनिमें छहा भेद वर्णन किया ३८१
आगें रात्रिभोजनत्याग प्रतिमाकू कहै हैं,जो चउविहं पि भोज्जं रयणीए णेव मुंजदे णाणी । ण य भुंजावइ अण्णं णिसिविरओ सो हवे भोज्जो।।
भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी श्रावक रात्रिविष च्यारि प्रकार अशन पान खाद्य स्वाद थाहारकू नाही भोगवै है, नाहीं खाय है, बहुरि परकू नाहीं भोजन करावे है सो श्रा.