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(२०६) आगे प्रोषधका माहात्म्य कहे हैं,एक पि णिरारंभ उववासं जो करेदि उवसंतो। बहुविहसंचियकम्मं सो णाणी खवदि लीलाए ३७७
. भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी प्रारम्भका त्यागकरि उपशम भाव मंदकषाय रूप हूवा संता एक भी उपवास करै है सो बहुत भवमें संचित कीये बांधे जे कर्म, तिनिकौं लीलापात्रमें क्षय करै है. भावार्थ-कषायविषय आहारका त्यागकरि इसलोक परलोकके भोगकी प्राशा छोडि एक भी उ. पवास करै सो बहुत कर्मकी निर्जरा करै है तौ जो प्रोषधमतिमा अंगीकारकरि पक्षमें दोय उपवास करै ताका कहा कहणा ? स्वर्गसुख भोगि मोक्षकू पावै है ॥ ३७७ ॥ ___ आगे प्रारम्भ आदिका त्यागविना उपवास करै ताकै कर्मनिर्जरा नाही हो है ऐसें कहै हैं,उववासं कुठवतो आरंभं जो करेदि मोहादो। सो णियदेहं सोसदि ण झाडए कम्मलेस पि ३७८
भाषार्थ-जो उपवास करता संता गृहकार्यके मोहत गृ. हका आरम्भ करै है सो अपनी देहकू सोख है कर्म निजरा का तो लेशयात्र भी ताकै नाही होय है. भावार्थ-जो विषय कषाय छाडयां विना केवल आहारमात्र ही छोडै है. गृहकार्य समस्त करै है, सो पुरुष देहहीकू केवल सोख है ताके कर्मनिर्जरा लेस मात्र भी नहीं हो है ।। ३७८ ।।