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(२०७) आये सचित्तत्यागमतिमाकौं कहै हैं,सच्चित्वं पत्फलं छल्लीमूलं च किसलयं बीजं ।। जो णय भक्खदि णाणी सचिचविरओ हवे सो वि॥ ___ भाषार्थ-जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टी श्रावक पत्र फल स्वक छालि मूल रूपल बीज ए सचित्त नाही भक्षण कर. सो सचित्तविरती श्रावक कहिये. भावार्थ-जीवरि सहित होय ताकौं सचित्त कहिये है. सो पत्र फल छालि मूल वीज . पळ इत्यादि हरित वनस्पति सचित्रकू न खाय सो सचित्तविरत प्रतिमाला धारक श्रावक होय है *।। ३७२। जो ण यभक्खेदि सयं तस्सण अण्णस्स जुज्जद दाउं भुत्तस्स भोजिदस्सहि णस्थि विसेसो तदो को वि॥
भाषार्थ-बहुरि जो वस्तु पाप न भखै ताकू अन्यकुं देना योग्य नाहीं है जानैं खानेवाले अर खुवावनेवालेमें किछ विशेष नाहीं है कृतका अर कारितका फल समान है तातें जो वस्तु आप न खाय सो अन्धकू भी न खुवाइये तब सचित्त त्याग व्रत परे ।। ३८०॥
* सुषकं पक्कं तत्तं विललवणेहि मिस्सिांद।
जं जंतेण य छिण्णं तं सब्वं फासुयं भांणयं ॥ ५ ॥ भाषार्थ -सूखा हुवा, पकाया हुवा, खटाई अर लवणसे, सिला हुवा तथा जो यंत्रसे छिन्नभिन्न किया हुवा अर्थात् शोधाहुबा हो एवा संप हरितकाय प्रासुक कहिये जीवरहित अचित्त होता है। ..