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आहार ही तैं प्राणोंकी रक्षा होय तातैं एही अभयदान भया ऐसें ही दान में तीनू गर्भित भये ।। ३६३ - ३६४ ॥
मागे दानका माहात्म्यहीकूं फेरि कहे हैं, - इहपरलोयणिरीहो दाणं जो देदि परमभीए । रयणन्तयेसु ठविदो संघो सयलो हवे तेण ॥ ३६५ ॥ उत्तमपत्तविसेसे उत्तमभत्तीए उत्तमं दाणं । एयदि विय दिपणं इंदसुहं उत्तमं देदि ॥ ३६६ ॥
भाषार्थ - जो पुरुष ( श्रावक ) इसलोक परलोक के फलकी वांछा रहित हवा संता परम भक्तिकरि संघके निमित्त दान दे है ता पुरुषने सकल संघकूं रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रविषै स्वाध्या | बहुरि उत्तम पात्रका विशेषके अर्थ उत्तम भक्तिकरि उत्तम दान एक दिन भी दीया हुवा उत्सम इन्द्रपदका सुखकं दे । भावार्थ- दानके दीये चतुर्विध संघकी थिरता होय है सो दान के देनेवालेने मोक्षमार्ग ही चलाया कहिये । बहुरि उत्तम ही पात्र उत्तम ही दाताकी भक्ति पर उत्तम ही दान सर्व ऐसी विधि मिले ताका उत्तम ही फल होय | इन्द्रादिक पदवीका सुख मिलै है || ३६५-६६६ ॥
मागें चौथा देशाबकाशिक शिक्षाव्रतकूं कहें हैं,पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥