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(१५५) भाषार्थ-हे भव्य जीव हो इस मनुष्यगतिविष ही तपका आचरण होय है बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही समस्त महावत होय हैं. बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही धर्म्यशुक्लध्यान होय हैं. बहुरि इस मनुष्यगतिविष ही निर्वाण कहिये मोक्षकी प्राप्ति होय है ॥ २९९ ।। इय दुलहं मणुयत्वं लहिऊणं जे रमंति विसएसु । ते लहिय दिव्वरयणं भूहाणमित्वं पजालंति ॥३०॥
भाषार्थ-ऐसा यह मनुष्यपणा पायकरि जे इन्द्रिय विषयनिविषै स्मै हैं ते दिव्य (अमोलिक) रत्नकू पाय भस्मके अर्थ दग्ध करै हैं. भावार्थ-अति कठिन पावने योग्य यह मनुष्य पर्याय अमोलिक रत्नतुल्य है. ताकू विषयनिविषै रमिकरि वृथा खोवना योग्य नाहीं ॥३००॥
आगे कहै हैं जो या मनुष्यपणामें रत्नत्रय पाय बडा आदर करो, इय सव्वदुलहदुलहं दसण णाणं तहा चरित्वं च। मुणिउण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि॥३०॥ ____ भाषार्थ-ए सर्व दुर्लभतें भी दुर्लभ जाणि बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र संसारविषै दुर्लभसों दुर्लभ जाणि अर दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीनिविष हे भव्य जीव हो ! बडा आदर करौ.! भावार्थ-निगोदतें नीसरि पूर्व कहै तिस अनुक्रमते दुः लभरां दुर्लभ जाणू, बहुरि तहां भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र