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(१७२) मानें हैं बहुरि परिग्रहकेविष प्रासक्त ऐसे भेषीनिक गुरु माने हैं ते प्रगट प्रसिद्ध मिथ्यादृष्टी हैं।
आगे कोई कहै कि व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी दे हैं, उपकार करै हैं तिनिकौं पूर्णं वन्दै कि नाही ताकू कहै हैं । णय को विदेदिलच्छी ण को वि जीवस्स कुणइ उवयार उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥३१९॥ ____ भाषार्थ-या जीव... कोई व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी नाही देवै है बहुरि कोई अन्य उपकार भी नाहीं करै है. जीवके पूर्वसंचित शुभ अशुभ कर्म हैं ते ही उपकार तथा अपकार करै हैं. भावार्थ-केई ऐसे मान है जो व्यंतर आदि देव हमकू लक्ष्मी दे हैं हमारा उपकार करै हैं सो तिनिकू हम पूजै वन्दै हैं. सो यह मिथ्या बुद्धि है. प्रथम तौ अवार कालमें प्रत्यक्ष कोई व्यंतर आदि श्राप देता देख्या नाही. उपकार करता दीखै नाहीं जो ऐसे होय तो पूजनेवाले दरिद्री रोगी दुःखी काहेकू रहैं. तातै वृथा कल्पना करै हैं. बहुरि परोक्ष भी ऐसा नियमरूप सम्बन्ध दीख नाहीं जो पूजै तिनिक अवश्य उपकारादिक होय ही. ताः यह मोही जीव वृथा ही विकल्प उपजाबै है. जो पूर्वकर्म शुभाशुभ संचित हैं सो ही या प्राणीकै सुख दुःख धन दरिद्र जीवन मरन• करै हैं ॥३१९॥ भत्तीए पुज्जमाणो वितरदेवो वि देदि जदि लच्छी। तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेइ सट्ठिी ॥३२०॥