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हुरि सम्यक्त्वमें देवहीकी आयु बांधै है तातै व्रतरहितकै भी स्वर्गहीका जाना मुख्य कह्या है. बहुरि सम्यक्त्वगुणप्रधानका ऐसा भी अर्थ होय है जो सम्यक्त्व पच्चीस मल दोषनितें रहित होय अपने निशकित आदि गुणनिकरि सहित होय तथा संवेगादि गुणनिकार सहित होय ऐसे सम्यक्त्वके गुणनिकरि प्रधान पुरुष होय सो देवेन्द्रादिकरि पूज्य होय है अर स्वर्गक प्राप्त होय है ॥ ३२६ ।। सम्माइट्टी जीवो दुग्गइहेतुं ण बंधदे कम्मं । जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ॥३२७॥ __ भाषार्थ-सम्यग्दृष्टा जीव है सो दुर्गतिका कारण जो अशुभ कर्म ताकू नाहीं बांधे है. बहुरि जो पापकर्म पूर्वं बहुत भवनिविषै बांध्या है तिमका भी नाश करै है. भावार्थ-सभ्यग्दृष्टी मरणकार द्वितीयादिक नरक जाय नाही. ज्योतिष व्यंतर भवनवासी देव होय नाही. स्त्री उपजै नाही. पांच थावर विकलत्रय असैनी निगोद म्लेच्छ कुभोगभूमि इनिविष उपजै नाही. जात याकै अनन्तानुबंधी के उदयके अभा. वते दुर्गातके कारण कषायनिके स्थानकरूप परिणाम नाहीं हैं इहां तात्पर्य ऐसा जानना जो तीनकाल तीन लोकविष स. म्यक्त्व समान कल्याणरूप अन्य पदार्थ नाहीं है. बहुरि मि. ध्यात्वसमान शत्रु नाहीं है. तातै श्रीगुरुनिका यह उपदेश है बो अपना सर्वस्व उद्यम उपाय यत्नकरि मिथ्यात्वका नाश