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(१८०) परन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय के तीव्र स्थानकनिके उदयते प्रतीचार रहित पंच अणुव्रत होय नाहीं ताने अणुव्रतसंज्ञा नाहीं आ है अर स्थूल अपेक्षा अगुव्रत ताकै भी त्रसका भक्षणका त्याग अगुत्व है व्यसननिमें चोरीका त्याग है सो असत्य भी यामें गर्मित है परस्त्रीका त्याग है वैराग्य भावना है तातै परिग्रहके भी मू के स्थानक घटते हैं परि. माण भी करै है परन्तु नितिचार नाही होय, तातै व्रतम तिमा नाम न पा है. बहुरि ज्ञानी विशेषण है सो युक्त ही है सम्यग्दृष्टी होय करि व्रतका स्वरूप जाणि गुरुनिकी दीई प्रतिज्ञा ले है सो ज्ञानी ही होय है, ऐसें जानना ॥ ३३० ।। । भागें पंच अणुव्रतमें पहला अणुव्रत कहै हैं,
जो वावरई सदओ अप्पाणसमं परं पि मण्णंतो। निंदणगरहणजुत्तो परिहरमाणो महारंभे ।।३.१॥ तसधादं जो ण करदि मणवयकाएहिं णेव कारयदि । कुव्वंतं पि ण इच्छंदि पढमवयं जायदे तस्स १२३३ ___ भाषार्थ-जो श्रावक बस जीव वेन्द्रिय तेन्द्रिय चौन्द्रिय पंचेंद्रियका घात मन वचन काय करि आप करै नाही परके पास करावे नाही अर परळू करताकौं इष्ट ( भला ) न माने ताकै प्रथम अहिंसा नामा अणुव्रत होय है. सो कै । है श्रावक ? दयासहित तौ व्यापार कार्य में प्रति है अर सर्व प्रा. णीकू आप समान मानता है. बहुरि व्यापारादि कार्यनिमें