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(१७८) सन कहे हैं. सो व्यसन नाम आपदा वा कष्टका है सो इनिके सेवनहारेकू आपदा आवै है, राज पंचनिका दंडयोग्य होय है तथा तिनिका सेवन भी आपदा वा कष्टरूप है, श्रावक ऐसे अन्याय कार्य करै नाही. इहां दर्शन नाम सम्य. क्त्वका है तथा धर्मकी मूर्ति सर्वके देखनेमें श्रावै ताका भी नाम दर्शन है. सो सम्यग्दृष्टी होय जिनमतकू सेवै अर अभक्ष अन्याय अंगीकार करै तौ सम्यक्त्वकू तथा जिनमतकों लजावै मलिन करै ताते इनिकौं नियमकरि छोडे ही दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक होय है ॥ ३२८॥ दिढचित्तो जो कुव्वदि एवं पि वयं णियाणपरिहीणो वेरग्गभावियमणो सो वि य दसणगुणो होदि ३२९
भाषार्थ-ऐसे व्रत; दृढाचत्त हूवा संता, निदान कहिये इह लोक परलोकनिके भोगनिकी बांछा ताकरि रहित हूवा संता वैराग्यकार भावित (आला ) है चित्त जाका, ऐसा हुवा संता जो सम्यग्दृष्टी पुरुष कर है सो दार्शनिक श्रावक कहिए है । भावार्थ-पहिली गाथामें श्रावक कह्या ताके ए तीन विशेषण और जानने. प्रथम तौ दृढचित्त होय परीषह आदि कष्ट आवै तौ व्रतकी प्रतिज्ञात चिगै ना. हीं, बहुरि निदानकरि रहित होय पर इस लोकसम्बन्धी जस सुख संपत्ति वा परलोकसम्बन्धी शुभगतिकी बांछा रहित पैराग्य भावनाकरि चित जाका आला कहिये सींच्या होय अभक्ष अन्यायकू अत्यन्त अनर्थ जाणि त्याग करै ऐसा नाही