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रसायण करि संतुष्ट हूवा संता सर्व धन धान्यादि परिग्रहकौं विनाशीक मानता संता दुष्ट तृष्णाक अतिशयकरि ह है. बहुरि धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहका अपना उपयोग सामर्थ्य जाण कार्य विशेष जाणि तिसके अनुसार परिमाण करै है ताकै पांचमा अणुव्रत होय है. अंतरंगका परिग्रह at लोभ तृष्णा है ताकौं क्षीण करें अर बाह्यका परिग्रह परिमाण करें अर दृढचित्तरि प्रतिज्ञाभंग न करें सो अतिचाररहित पंचम अणुवती होय है. ऐसें पांच अणुव्रत निरतिचार पाले सो व्रत प्रतिमाघारी श्रावक है ऐसें पांच च व्रतका व्याख्यान कीया ॥ ३३९ - ३४० ॥
अब इनि व्रतनिकी रक्षाकरनेवाले सात शील हैं ति निका व्याख्यान करे हैं तिनिमें पहले तीन गुणव्रत हैं तामें पहला गुणवतकौं कहे हैं,
जह लोहणासणट्टं संगपमाणं हवेइ जीवरस | सव्वं दिसिसु पमाणं तह लोहं णासए णियमा ३४१ जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उवओगं जाणिता गुणस्वयं जाण तं पढमं ॥ ३४२ ॥
भाषार्थ - जैसें लोभके नाश करनेके अर्थ जीवकै परिग्रहका परिमाण होय है तैसें सर्व दिशानिविधै परिमाण कीया हूवा भी नियमतें लोभका नाश करें है. तातें जे सर्व ही जे पूर्व आदि प्रसिद्ध दश दिशा तिनिका अपना उपयोग प्रयो